Friday, November 19, 2010
जब से देखा है तेरी .झील से आंखे,.......मैं जीना सीख गया हू
जब से देखा है तेरी .झील से आंखे,.......मैं जीना सीख गया हू
POET- PARVIN ALLAHABADI & MEHEK SULTANA
तेरी सादगी में क्या बात थी
तेरे सादगी में क्या बात थी
वोह तो पुरी के पुरी अल्लाहाबाद थी
तेरी सादगी में क्या बात थी
तेरे सादगी में क्या बात थी
वोह तो पुरी के पुरी अल्लाहाबाद थी
तू ही गंगा, तू ही दुर्गा, तू ही थी वोह सावत्री
तू ही सीता, तू ही यशोदा, टू ही माता सबरी
तू ही इस एकलव्य के प्रेरणा
तू ही भीम की गदा
और तू ही थी वेदव्यास की कलम
टू हे थी सिकंदर का जूनून
तू हे थी गौरी के इतनी साहस
और मत्स्यगंधा की सुगंध भी तू
जिस मन में बसे चित्र का कोई नाम ना था
वोह तू ही थी
कभी सोचता था , जब काल्पनिक चित्र भी
जीवित हो सकते है
वोह कौन थी
वोह तू ही थी
मेरे लिया तो thames भी तू और ब्रह्मपुत्र भी
कावेरी और कृष्णा भी
भूगोल भी तू
इतहास भी टू
गणित भी टू
और राज्नितिसस्त्र भी
मेरे अपने दर्पण मे भी तू ही
और भीष्म के प्रतिज्ञा भी तू
टू हे नानक देव
टू हे सूरदास के आखे
गुलज़ार के राखी भी टू
और क्रिशन के राधा भी टू
समुन्द्र के शीतल लहरें भी टू ही
समुन्द्र के ज्वर भी टू ही
जब से देखा है , तेरे झील से आखे
मैं जीना सीख गया हू
एक शराबी की shaki भी टू
जादूगर का छूमंतर भी टू
साचात यमराज को हराने वाले सावत्री भी टू
पुत्र मोह में अँधा ,निर्लज ,कायर, असहाय धित्रश्तरे रूपी समाज जैसे लोगो की अकेली पुत्री भी टू
टू हे मेरे ताज है
हां टू हे मेरी मुमताज़ है
मई मकबरा क्यों बनायू तेरी
जब जिन्दा टू मेरे साथ साथ है
सुबह सवेरा मंदिर से आने वाली मधुर घंटियों के आवाज़ भी तू
और मस्जिद से दिल को छु लेने वाली मधुर अज़ान भी टू
सुबह के बदली भी तू हे
और पंच्यी का चल्चालना भी टू
सुबह के आवाज़ करनी वाली कोयल भुई टू
वर्णन देखे
गुलाब भी टू ही
और चंपा और चमेली भी
बेला का भूल भी टू
चन्दन के व्रिस्क से आते खुसबू भी टू
और महक की अधूरी खुसबू भी टू
उसने कहा था
परवीन हमरा धर्म अलग , खान पान अलग
मेरे नवाबी शान भी अलग
एक कोई और तेरे ज़िन्दगी में ऐयेगे
तुझे अपने बनके जायेगा
जब से देखा है , तेरे झील से आखे
मैं जीना सीख गया हू
ईद का चाँद भी तू
उस वसंतसेना के मन में,
रहने वाली पवित्र गीता भी तू
चारुदत्त के मन को,
हर लेने वाली, वो प्राण भी तू
धर्म भी तू
वेद भी तू
पुराण भी तू
वो पाक-ए-कुरान भी तू
एक पीर-पैगम्बर की, मज़ार भी तू
मरनेवाला जिस गंगाजल को तरसे,
वह जल भी तू
माता सीता की प्रतीक्षा भी तू
असंभव को संभव करने वाली भी तू
प्रश्न भी तू, उसका उत्तर भी तू.......
mere maharsahtrain bhi tuu, aur mere woh gugratan bhi tuu...
एक है फिर भी नहीं है, एक नहीं है फिर भी है
मोह भी तू , माया भी तू
और अहिल्या के प्राणों को
एक और मौका देने वाला ऋषि भी तू
माता भी तू पुत्री भी तू
शायद होने वाली मेरी,
अर्धांग्नी भी तू..............
मेरी अंतरात्मा भी तू
और परमात्मा भी तू...
और हे मेरी प्राणों से प्रिय,
इस कवि के प्राण भी अब तू...
कविता का कोई अंत नहीं है
नदी रूप कविता, सागर में ही जा कर मिलते हैं...
मोह भी तू, माया भी तू,
मेरे लिए ब्रम्हा भी तू...
विष्णु भी तू है, और मेरा महेश भी तू है...
गगन,धरती और पाताल भी तू...
जब से देखीं है तेरी .झील से आंखे,.......
मैं जीना सीख गया हूँ...
हा जब से देखीं है तेरी .झील से आंखे,.मैं जीना सीख गया हूँ...
- प्रवीण इलाहाबादी व महक सुल्ताना...
PARVIN ALLAHABADI & MEHEK SULTANA
(there can be Thousand of Mehek Sultana)
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
अच्छी पोस्ट , शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteबड़ी लम्बी रचना है... पर प्रवाह ना टूटा ..... बहुत खूब .... सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDelete